मुल्क का कठपुतली का खेल
बचपन के वो दिन, जब कठपुतलियाँ थीं खुशियों का ज़रिया,
रंग-बिरंगे कपड़े और ज़ेवरों में लिपटी कहानियाँ थीं सच्ची दुनिया।
गानों का सुर, किरदारों का नाच,
हर पैग़ाम एक नई रौशनी, हर कहानी एक नई बात का राज़।
वो लोक कहानियाँ जो सब्र का पाठ पढ़ातीं,
इंसानियत और सच्चाई का पैग़ाम देतीं।
वो किरदार जिनका हर दिल को छू जाता,
कहानी का अंजाम हर बार एक सीख बन जाता।
पर वक़्त गुज़रता गया, वो खेल ग़ायब होता गया,
बचपन की मासूमियत के साथ वो रंग भी खोता गया।
कठपुतलियाँ एक याद बनकर रह गईं,
और एक दिन समझ आया, असली दुनिया भी एक कठपुतली का खेल बन गईं।
स्कूल में हमें सिखाया गया, सब कुछ है एकदम ठीक,
जो कहा जाता है, वही असल है, यही था हमारा रिवाज और सीख।
हम मासूम थे, हमें शक करने की वजह नहीं थी,
अपने उस्तादों पर था भरोसा, सच्चाई का चेहरा हमसे छुपा था कहीं।
फिर एक दिन समझ आया, जो देखा वो बस था एक धोखा,
कठपुतली का खेल जो था मैदानों में, अब ज़िन्दगी का हिस्सा बना काफी अनोखा।
वो लोग जो कहानियाँ सुनाते थे, अब खुद कहानी बन गए,
और उनकी डोरी किसी और के हाथों में थी, ये वो नहीं थे जो पहले थे।
अब कठपुतलियों का मंज़र बदल गया,
जो हमें हँसाता था, वो अब दिल को तोड़ गया।
सोशल मीडिया हो या उसके क़ाबिल लोग,
हर इंसान एक कठपुतली, हर बात का एक नया धोखा, ये हो रहा है अब रोज़।
टीवी और वेब सीरीज़ भी उस खेल का हिस्सा हैं,
जो हम देखते हैं, वो हक़ीकत नहीं, बस एक नकली अफ़साना है।
और वो जो डोरी खींचता है, एक कठपुतली बाज़ है,
जो नए कपड़ों में, नए चेहरे में, पुराने झूठों को तैयार कर लाता है।
मुल्क की पहचान, औरत की इज़्जत, सब उस डोरी में बंध गए,
घोटाले, नफ़रत, और धोखा उस खेल के नए साज़ हैं, सब उन डोरियों से बंध गए।
हर वक़्त एक नई कहानी, एक नई चाल,
कठपुतली का ये उस्ताद हर शातिर चाल में माहिर है, सबको फंसा लेता है हलचल में एक हाल।
वो न सिर्फ़ यहाँ, बल्कि पर्दे पर भी गया,
और अपने नए रंग और करतूत लेकर दुनिया में फैलाया।
वो दुनिया के सामने नए अफ़साने सुनाता है,
मगर उसके पीछे सिर्फ़ फ़रेब का साया है, यही सच है।
जो औरतों की ख्वारी होती है, वो सिर्फ़ एक ख़बर बन जाती है,
और जो हक़ीकत है, वो कठपुतली का मुद्दा बन जाती है।
लोग जो अपनी ज़िन्दगी जीते हैं,
वो बस एक खेल का हिस्सा बन जाते हैं, उनका हक़ हर दिन खोते हैं।
अब मुझे कठपुतली का खेल दिल को न भाता है।
ना वो सीख देता है, ना वो पुराना गाना सुनाता है।
सिर्फ़ एक डोरी है, जो सबको अपने क़ैद में रखती है,
और हर शाम, वो डोरी और भी मज़बूत होती है, सच्चाई और जज़्बा धीरे-धीरे मरती है।
कठपुतली का ये खेल कब तक चलेगा?
क्या हम कभी अपने मुल्क की लिख पाएंगे,
या हमेशा किसी के हाथों में बंधे रहेंगे?
जैसे हर खेल एक दिन खत्म होता है,
ठीक वैसे ही कठपुतली बाज़ का खेल ख़त्म होगा,
लेकिन एक दिन ये धागे टूटेंगे,
और कठपुतली बाज़ से कठपुतली का साथ छुटेगा।